विक्रम दयाल
गांवों की बदलती सूरत-ए-हाल से बरसों से चली आरही पुरानी परंपराओं की धूम, धोमिल होती नजर आरही हैं. किसी भी त्यौहार को मानाने में, पहले जैसी रौनक ललक अब नही रह गई है. पहले जो भी कच्चे या झोपड़ीनुमा घर हुआ करते थे, उन्हे गांव के लोग अच्छी तरह से लीप-पोत कर साफ-व-स्वच्छ कर लिया करते थे. तब यह नजारा देखकर अनुमान लग जाया करता था कि शायद कोई त्यौहार अब आने वाला है.? कोई भी त्यौहार आने के पहले से ही गांवों में लोगों के अंदर एक अजीब उत्सुकता और प्रसन्नता दिखाई देती थी, और गांवों में चहल पहल जो रहती थी, अब वह धूम धाम गांवों से चली गई है. क्यों कि अब लोगों में शहरी जीवन जैसा परिवर्तन आगया है. गांव के स्थानीय देवी देवता की पूजा करके ग्रामीण जनता तब उस समय खुश होजाया करती थी. और एक सुखद अनुभव प्राप्त कर लेती थी. उनकी सारी मन्नते पूर्ण भी होजाया करती थी. मगर अबके ग्रामीणों का जीवन पहले के ग्रामीणों से बिल्कुल भिन्न हो गया है. तब गांवों में मंदिर भी नही थे, किसी किसी गांव में शिव मंदिर के दर्शन हो जाया करते थे. या कही खंडहर जैसी हालात में मंदिरों के दर्शन बिना पुजारी के मिल जाया करते थे. आजकल के समय में अब गांव गांव में मंदिर बन गये हैं लोग ईश्वर भजन किर्तन में वहीं समय बिता लेते हैं. रक्षाबंधन का त्यौहार आने के पहले से ही बहन भाई के कलाई पर प्रेम का धागा बांधने के लिए ससुराल से मायके आजाया करती थी.या भाई बहन से मिलने उसके घर चला जाया करता था. इसतरह भा़ई और बहन दूर रहते हुए भी रक्षाबंधन के दिन जरूर मिल लेते थे.
कृष्ण जन्माष्टमी का त्यौहार आने के पहले से ही कृष्ण भगवान के मनचाहे फल, फूल, मक्खन, दूध मिष्ठान्न के लिए ग्रामीण महिलायें और पुरुष खरीदारी करते थे और भगवान कृष्ण का जन्म दिन मनाने के लिए उपवास करते थे. और रात बारह बजे तक कृष्ण भजन करके ही प्रसाद ग्रहण करते थे. प्रथम पुज्य श्रीगणेश के पूजन के लिए गांव की महिलायें व्रत करके प्रभु श्रीगणेश का विधि पूर्वक पूजा एवम् आरती करती थी, नवरात्री का त्यौहार आने के पहले ही घरों को साफ और स्वच्छ कर लिया जाता था तब माता दुर्गा की व्रत महिलायें और पुरुष दोनों ही नव दिन तक करते थे. दसहरा के त्यौहार में नये नये कपड़े बच्चे, बड़े, बूढ़े, सब धारण करते थे. जिनके पास नये कपड़े नही हुआ करते थे, वे अपने कपड़े रेह के पानी से साफ करके पहनते थे. क्यों कि उस वक्त साबुन की उपयोगिता कम थी. और गांवों में प्रचलन भी नही था. दीवाली में मिट्टी के बने दीप जलाये जाते थे, जिन घरों में कभी दीप नही जलते थे उस घर में भी दीवाली के दिन दीप जलते थे. और वह घर रोशन होता था. उस समय के गांव दूर से दे़खने पर लगता था जैसे आसमान धरती पर तारों की बारात लिए आया हो. रंगों का त्यौहार होली ज्यों ज्यों नजदीक आती थी लोगों के उपर रंगों की बौछारें पड़ने लगती थी. कोई भी इंसान गांव का कहीं गया तो उसे रंग में सराबोर होकर ही वापस घर आना था. महीनों तक रंग का नशा नही उतरता था. समय के चलते गांव वहीं हैं, मगर इंसान अब वो नही हैं. जो हर पारंपरिक त्यौहारों को पारंपरिक तौर से मनाया करते थे. अब गांव के लोग धोती कुर्ता कमीज छोड़ कर पैंट शर्ट टी शर्ट पहनते हैं. और खेतों में काम करने के लिए हल बैल, फावडा़ कुदाल नही लेकर जाते हैं. ट्रैक्टर लेकर जाते हैंं. अब के किसान कूँआँ से पानी नही निकालते हैं. ढ़ेकुल, चर्खा, मोट का इस्तेमाल नही करते हैं. अब पंपिंगसेट और ट्यूबवेल से पानी निकाल कर खेतों की सिंचाई करते हैं. अब पहले जैसा गांव नही रहे. अब नये जमाने के नये किसान हैं. जो पुरानी परंपराओ को भूल चुके हैं. इसलिए अब गांवों में पहले जैसी धूम किसी भी त्यौहारों में नही मिलती.