लोकसभा चुनाव के बाद आरएसएस की चुनावी रणनीति



आलेख : राम पुनियानी)

भाजपा के लिए सन 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजे निराशाजनक रहे। लोकसभा में उसके सदस्यों की संख्या 303 से घट कर 240 रह गई। नतीजा यह कि पिछली बार जहां केवल नाम की गठबंधन (एनडीए) सरकार थी, वहीं इस बार सरकार वास्तव में एक पार्टी की न होकर गठबंधन की नज़र आ रही है।

पिछली और उसकी पिछली सरकारों में गठबंधन दलों की सुनने वाला कोई नहीं था। मगर अब इस बात की काफी अधिक संभावना है कि गठबंधन के साथी दलों की मांगों को सरकार सुनेगी और उन पर विचार करेगी। इसके चलते भाजपा अपना हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडा उतनी आसानी से लागू नहीं कर पाएगी, जितना पहले कर लेती थी। इसके अलावा, इंडिया गठबंधन की ताकत में भी इजाफा हुआ है और राहुल गाँधी की लोकप्रियता में भी बढ़ोत्तरी हुई है। विपक्ष अब अपनी बात ज्यादा दमख़म से कह पा रहा है।

ऐसा हो सकता है कि पिछले चुनाव में आरएसएस अपनी राजनैतिक संतान भाजपा की मदद के लिए मैदान में न उतरा हो। मगर यह मानना भूल होगी कि वह चुनाव में भाजपा की हार चाहता था। वह केवल भाजपा के ‘नॉन-बायोलॉजिकल’ नेता को चेतावनी देना चाहता था, उसके बढ़ते वर्चस्व की हवा निकलना चाहता था। मगर भाजपा की गाड़ी की स्टीयरिंग व्हील अब भी आरएसएस के हाथों में है। संघ पिछली सीट पर बैठ कर गाड़ी चला रहा है। आरएसएस और भाजपा नेताओं की लम्बी-लम्बी बैठकें चल रही हैं, जिनमें चुनाव नतीजों की विवेचना की जा रही है और भविष्य की रणनीति तैयार हो रही है।

उत्तर प्रदेश में ऐसी ही बैठक में आरएसएस के प्रतिनिधिमंडल के नेता सह सरकार्यवाह (संयुक्त महासचिव) अरुण कुमार थे, जो लम्बे समय से संघ और भाजपा के बीच समन्वय का काम करते आ रहे हैं। लाइव हिंदुस्तान के अनुसार, आरएसएस के राम माधव को जम्मू-कश्मीर में हो रहे चुनावों का प्रभार दे दिया गया है।

आरएसएस को लगता है कि चुनाव में भाजपा की सीटों में गिरावट का मुख्य कारण है दलित वोटों का इंडिया गठबंधन की ओर खिसक जाना। इससे निपटने के लिए विहिप को सक्रिय किया जा रहा है। उसके कार्यकर्ता दलित बस्तियों में बैठकें करेंगे और दलितों के साथ भोजन करेंगे। दलितों को लुभाने के लिए विहिप से जुड़े साधु-संत उनकी बस्तियों में धार्मिक कार्यक्रम आयोजित करेंगे। 'द हिन्दू' के अनुसार, “ये धार्मिक नेता नियत स्थानों में पदयात्राएं करेंगे, सत्संग और धर्म संसदों का आयोजन करेंगे, दलितों के घरों में जाएंगे और उनके साथ भोजन करेंगे। यह कार्यक्रम विहिप की 9,000 इकाईयों में किए जाएंगे।”

यह सब हमें राममंदिर आंदोलन की याद दिलाता है, जिसकी नींव विहिप ने रखी थी और बाद में भाजपा ने इस आंदोलन का मोर्चा सम्हाल लिया था। आरएसएस चालकों (प्रचारकों, स्वयंसेवकों) को प्रशिक्षण तो देता ही था, अब वह बैकसीट ड्राइविंग भी कर रहा है। 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजों ने उसे हिला दिया है और वह भाजपा के खोये हुए वोट बैंक को फिर से हासिल करने के लिए हर संभव प्रयास करने वाला है।

चुनाव नतीजों के बाद आरएसएस की सक्रियता से यह जाहिर है कि केवल एक सांस्कृतिक संगठन होने का उसका दावा कितना खोखला है। यह अलग बात है कि इस बार आरएसएस को अपनी राजनैतिक ताकत दूसरी दिशा में लगानी पड़ेगी। राममंदिर आंदोलन, मंडल से मुकाबला करने के लिए खड़ा किया गया था। मोदी सरकार के दस सालों के दौरान हिंदुत्ववादी एजेंडा के अनुरूप जम कर काम किया गया। और अब लोगों को ऐसा लग रहा है कि आरएसएस, जो ‘मनुस्मृति’ और ‘मुसलमानों से नफरत करो’ के सिद्धांतों पर आधारित है, सामाजिक न्याय के पक्ष में कभी खड़ा नहीं हो सकता।

विपक्षी पार्टियों को हिन्दू राष्ट्र की राजनीति की असलियत को समझने में एक लम्बा वक्त लग गया। मोदी-भाजपा के 10 साल लम्बे पक्षपाती और तानाशाहीपूर्ण शासन के बाद विपक्षी पार्टियों ने आरएसएस की राजनीति से मुकाबला करने के लिए कुछ कदम उठाए हैं। आरएसएस में भी बदलाव आए हैं। उसके द्वितीय सरसंघचालक एम एस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक “व्ही ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड” में नाज़ी और फासीवादी विचारधारा का जम कर गुणगान किया था। संघ ने तिरंगे का विरोध किया था और भारत के संविधान का भी। नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गाँधी की हत्या के बाद आम जनता की निगाह में आरएसएस की छवि बहुत ख़राब हो गयी थी।

यह नियति ही थी कि जयप्रकाश नारायण का ‘संपूर्ण क्रांति’ आन्दोलन उभरा और उससे आरएसएस को फिर से विश्वसनीयता और स्वीकार्यता हासिल हुई। जेपी प्रतिबद्ध स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे, मगर फिर भी वे आरएसएस की असलियत को नहीं समझ सके। उन्होंने यहां तक कहा कि, “अगर आरएसएस फ़ासिस्ट है, तो मैं भी फ़ासिस्ट हूँ।”

नेहरु को आरएसएस की असली प्रकृति की अच्छी समझ थी। दिसंबर 1947 में प्रांतीय सरकारों के मुखियाओं को लिखे गए एक पत्र में नेहरु ने लिखा था, “हमारे पास इस आशय के ढेर सारे सुबूत हैं कि आरएसएस की प्रकृति एक निजी सेना जैसी है। वह पूरी तरह से नाजियों की राह पर चल रहा है और नाज़ी संगठनों के तौर-तरीके भी अपना रहा है।” आरएसएस की इस असलियत पर बाद की सरकारों ने ध्यान नहीं रखा। इसके अलावा, आरएसएस द्वारा प्रशिक्षित प्रचारकों ने देश के महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनैतिक संस्थाओं में घुसपैठ कर ली।

भाजपा सरकार के दो कार्यकालों में जनता के एक बड़े तबके और कई राजनैतिक दलों का भाजपा से पूरी तरह मोहभंग हो गया है। उन्हें यह समझ में आ गया है कि नेहरु जो कहते थे, उसमें सच्चाई थी। इसके अलावा, अनेक नागरिक समाज संगठन, जो चुनावों से दूरी बनाये रखते थे, भी जाग उठे हैं। उन्हें यह साफ़ नज़र आ रहा है कि भाजपा-आरएसएस के शासन ने हमारे समाज को इतना नुकसान पहुंचा दिया है कि इंडिया गठबंधन की सारी कमजोरियों के बावजूद अब यह ज़रूरी हो गया है कि प्रजातांत्रिक और बहुलतावादी मूल्यों को पुनर्स्थापित करने के उसके अभियान को हर तरह का सहयोग दिया जाए। विभिन्न मुद्दों पर अपने मतभेदों को परे रख, ये संगठन आपस में सहयोग कर रहे हैं, ताकि हमारे देश में प्रजातंत्र बचा रहे और बहुलतावाद फले-फूले। 'इडूलु कर्नाटक' और उसके बाद 'भारत जोड़ो अभियान' इस सहयोग के उदाहरण हैं।

यह अहसास केवल राजनीति के क्षेत्र तक सीमित नहीं है। हम सब देख रहे हैं कि किस तरह देश में वैज्ञानिक और तार्किक सोच को हतोत्साहित किया जा रहा है और अंधश्रद्धा को बढावा दिया जा रहा है। प्राचीन भारत का अतार्किक महिमामंडन हो रहा है। हमें बताया जा रहा है कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी थी। हमें यह भी बताया जा रहा है कि गौमूत्र में सोना होता है और यह भी कि थालियाँ पीटने से कोरोना भाग जायेगा। आईआईटी, जो विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में देश के सर्वोच्च संस्थान हैं, ‘पंचगव्य’ की उपयोगिता पर शोध कर रही है।

आरएसएस के प्रशिक्षित प्रचारक चारों ओर हैं। मीडिया और सोशल मीडिया के ज़रिये वे प्रतिगामी मूल्यों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। सड़ांध बहुत गहरे तक पहुंच चुकी है। भाजपा को चुनावों में पराजित करना, इस सड़ांध को मिटाने की दिशा में पहला कदम है। इसके बाद हमें ऐसी सामाजिक सोच जो बढ़ावा देना होगा, जो हमारे स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों पर आधारित हो। चाहे वह इतिहास हो या विज्ञान या न्याय व्यवस्था, हमें सांप्रदायिक विचारधारा द्वारा बोए गए विषैले पौधों को उखाड़ फेंकना होगा।

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